दूसरे दीपक को जलाने के लिए कहा
दूसरे दीपक को जलाने के लिए कहा - एक बार की बात है। मगध साम्राज्य के सेनापति व्यक्तिगत कार्य के लिए चाणक्य से मिलने के लिए पाटलिपुत्र पहुँचे।
संध्या हो चुकी थी, चाणक्य एक दीपक की रोशनी में गंगा के किनारे अपनी झोंपड़ी में कुछ लिख रहे थे।
कुछ समय बाद जब सेनापति ने प्रवेश किया, तो चाणक्य ने सेवक को बुलाया और कहा, "आप कृपया इस दीपक को ले जाएं और दूसरा दीपक जलाएं।"
सेवक ने आज्ञा का पालन करते हुए वैसा ही किया।
चर्चा खत्म होने पर सेनापति ने उत्सुकता से पूछा-
"हे महाराज, मुझे एक बात समझ में नहीं आई! मेरे आने पर आपने एक दीपक बुझा दिया और दूसरे दीपक को जलाने के लिए कहा ।
जब दोनों में कोई अंतर नहीं था, तो ऐसा करने का क्या कारण है?" ? "
दूसरे दीपक को जलाने के लिए कहा-
इस पर चाणक्य ने मुस्कुराते हुए सेनापति से कहा-
"भाई, जब आप आए, तब मैं राज्य का काम कर रहा था। इसमें राजकोष से खरीदा गया तेल था।
लेकिन जब मैंने आपसे बात की, तो मैंने अपना दीपक जलाया क्योंकि आपके साथ हुई बातचीत व्यक्तिगत थी।
मुझे व्यक्तिगत काम में राज्य के पैसे खर्च करने का कोई अधिकार नहीं था, इसलिए मैंने ऐसा किया। "
उन्होंने कहना जारी रखा- "स्वदेश के साथ प्रेम का अर्थ है अपने देश की वस्तु को अपनी वस्तु मानकर उसकी रक्षा करना ।
ऐसा कुछ न करें जिससे देश की महानता को ठेस पहुंचे। हर देश की अपनी संस्कृति और आदर्श होते हैं।
यह उन आदर्शों के अनुरूप काम करने से ही देश के स्वाभिमान की रक्षा होती है। "
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